Friday, August 28, 2009

महिला आरक्षण विधेयक

पंद्रहवीं लोकसभा के पहले सत्र मे 4 जून 2009 को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दोनों सदनों की संयुक्त बैठक मेंघोषणा की कि सरकार विधानसभाओं और संसद में महिलाआरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित कराने की दिशा मेंसौ दिन के भीतर कदम उठायेगी. संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने महिलाआरक्षण को लेकर सरकार की मंशा सामने रखी.

राष्ट्रपति के अनुसार महिलाओ को वर्ग, जाति और महिला होने के कारण अनेक अवसरों से वंचित रहना पड़ता है. इसलिए पन्चायतों और शहरी स्थानीय निकाय में आरक्षण बढ़ाकर महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने केलिए अगले 100 दिन में संवैधानिक संशोधन करने के क़दम उठाए जाएँगे ताकि अधिक से अधिक महिलाएँसार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकें. सरकार अगले 100 दिनों में केंद्र सरकार की नौकरियों में भी महिलाओं काप्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोशिश करेगी. इसके साथ-साथ बेहतर समन्वय के लिए महिला सशक्तिकरण पर एकराष्ट्रीय मिशन स्थापित करने का क़दम उठाया जाएगा.

15वीं लोकसभा ने कई मायनों मे इतिहास रचा है। नारी सशक्तीकरण अब राजनीतिक गलियारों का मुद्दा नही, बल्कि 15वीं लोकसभा की हकीकत है। यह पहला मौका है, जब संसद में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या 50 से अधिक है। यही नहीं सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के इतिहास में पहली बार एक महिला को लोकसभाअध्यक्ष बनने का मौका मिला है। संसद में महिला आरक्षण का प्रश्न आज प्रत्येक व्यक्ति की चर्चाका विषय है।संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के उद्देश्य से 14वीं लोकसभा मेंवें संविधान संशोधन विधेयक ने देश के जनमत को फिर चैतन्य कर दिया था 108

महिलाओं को राजनीतिक सशक्तीकरण और लैंगिक असमानता दूर करने के उद्देश्य से राज्यसभा में रखा गयाविधेयक इस रास्ते का पहला प्रयास नहीं था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्रित्वक काल में भी इसमोर्चे पर चिंतन हुआ था। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों को संविधान में स्थान देने की योजनाबनाते समय संसद और विधान मंडलों के लिए भी ऐसे ही कदम की रूपरेखा बनी थी। बाद में प्रयास फलीभूत नहींहुआ।

महिला आरक्षण की त्रासदी
देश मे आधी आबादी (महिलाएं) पिछले एक दशक से अपना प्रतिनिधित्व बढाने की मांग कर रही हैं लेकिन पुरूषप्रधान राजनीति संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने दे रही। यह अप्रत्याशित और सुखद है किपन्द्रहवीं लोकसभा में उपेक्षित महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व बढा है। यह पहला मौका है जब 58 महिलाएं लोकसभामें पहुंची हैं, जो अब तक का सर्वाधिक आंकडा है। इस बार कुल 556 ने चुनाव लडा था। उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादापश्चिम बंगाल से 7 और राजस्थान से 3 महिला सांसद चुनी गई हैं।
14वीं लोकसभा में देशभर में 355 महिला उम्मीदवार चुनावी रणक्षेत्र में कूदी थी। इनमें से महज 45 लोकसभा मेंपहुंच पाई, जो 543 सदस्यीय सदन का 10 फीसदी भी नहीं है। नई लोकसभा में पिछली की तुलना में 13 महिलाएंज्यादा है 12,

दस साल पहले महिलाओं को विधानसभा और संसद में 33 फीसदी आरक्षण देने का शिगूफा छोडा गया। यह घोरविडंबना है कि महिला आरक्षण का ज्वलंत मुद्दा पिछले करीब एक दशक में किसी किसी तरीके से लम्बित होतारहा है। राजनीतिक दल भी गाहे--गाहे, महिला आरक्षण का राग अलापते रहे हैं। लगभग सभी पार्टियों के चुनावीघोषणा-पत्र में महिला आरक्षण पर अमल का वादा किया जाता है। प्रधानमंत्री रहते एच.डी. देवेगौडा और अटलबिहारी वाजपेयी ने महिला आरक्षण बिल पेश किया। पास कराने की कोशिश भी हुई, लेकिन सफलता नहीं मिली।सरकारें आती जाती रहीं, प्रधानमंत्री बदलते रहे। यह विधेयक 1996 से अब तक कई बार लोकसभा में पेश हो चुकाहै, लेकिन आम सहमति के अभाव में यह पारित नहीं हो सका। 12वीं और 13वीं लोकसभा में दो बार बिल कोराजग शासनकाल में प्रस्तुत किया गया। यूपीए सरकार के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक आगे नहीं बढा।आम सहमति बन पाने को कारण बताकर महिला विधेयक को एक प्रकार से ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।

आज भी महिलाओं को संसद और विधानसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हैं। अन्तर संसदीय संघ (इंटरपार्लियामेंटरी यूनियन) के अनुसार विश्वभर की संसदों में सिर्फ 17.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। ग्यारह देशों की संसदोंमें तो एक भी महिला नहीं है और 60 देशों में दस प्रतिशत से कम प्रतिनिधित्व है। अमरीका और यूरोप में बीसप्रतिशत प्रतिनिधित्व है, जबकि अफ्रीका एवं एशियाई देशों में 16 से 10 प्रतिशत। अरब देशों में महिलाओं काप्रतिनिधित्व सिर्फ़ 9.6 प्रतिशत है। महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में 183 देशों में रवांडा पहले नम्बरपर है। वहां संसद में 48.8 फीसदी महिलाएं हैं। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनियामें 134वें स्थान पर है।

अधिकांश पुरूष सांसद महिला सशक्तिकरण की बात जरूर करते हैं, पर समाज की "आधी आबादी" के लिए त्यागकरने के लिए तैयार नहीं हैं। इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर दिखता है। आरक्षण सही राजनीतिक दल महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने लगें तो भी महिलाओं की संख्या संसद में बढेगी।पन्द्रहवीं लोकसभा इसका उदाहरण है।

महिला आरक्षण क्यों?
भारत में महिलाओं को सम्मान और समानता की विचारधारा उतनी ही सशक्त रही है जितनी कि इनके साथअसमानता की। समय बीतने के साथ पुरुष प्रधान समाज ने ना मालूम कैसे रवैये में परिवर्तन कर लिया और नारीभी इसकी आदी हो गई। सती सावित्री, अहिल्या देवी, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, अदिति पंत, बछेंद्री पाल, किरण बेदी, कल्पना चावला भारतीय महिलाओं के रोल मॉडल हैं। वह कौन-सा कार्य है, जो 'प्रस्तावित 33 फीसदीवर्ग' ने नहीं कर दिखाया है। पंचायती राज और स्थानीय निकाय संबंधी 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयकके अधिनियमित होने के बाद तो महिलाओं की आवाज इस मुद्दे पर और सशक्त हो चली है। धरातली संस्थानो में तोमहिलाओं के लिए आरक्षण है, किंतु इनके लिए कानून बनाने वाले संस्थानों में नहीं। महिला आरक्षण के लिए तर्ककम वजनदार नहीं हैं। महिलाएँ, त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामनेरखती हैं। संसाधनों का इस्तेमाल पुरुषों की तुलना मे महिलाएँ अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। पंचायती राजसंस्थानों में 'मैडम सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं बिंदुओं पर गंभीरता से विचार हुआ था। अबसंवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था जोरदार ढंग से अनुभव हो रही है। समाज की तरह राजनीति में भीपुरुष वर्चस्व है और वर्चस्व के इस दंभ ने स्त्रियों को बढ़ने नहीं दिया। महिला अपने बल पर कहीं पर खड़ी हो, यहउसे बरदाश्त नहीं होता।

महिलाओं के उत्थान के लिए यह विधेयक आवश्यक है। लेकिन इसमें भी संशय है कि यह सिर्फ आम बिल बनकररह जाएगया महिलाओं को हक दिलाने में कारगर भी होगा। इस बिल के पेश होने के बाद उम्मीद है कि महिलाएंअब आत्मविश्वास के साथ अपने हक की मांग करें। अपने अधिकारों को कानूनी रूप से प्राप्त करने के लिए वे स्वयंआगे आएं। कितने आश्चर्य की बात है कि इतने चुनावों के बाद भी महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नगण्य है।

ऊंचे ओहदों पर सिर्फ इक्का-दुक्का महिलाएं मिलती हैं। जब भी महिलाओं को कुछ देने की बात आती है, चाहे वहनौकरी हो, शीर्ष पद हो या उनके अन्य अधिकार, हम उन्हें कृपापात्र बना देते हैं। हम उन्हें उनका हक भी ऐसे देते हैं, जैसे खैरात दे रहे हों। अगर व्यावहारिक रूप से अपने समाज के अंदर ही देखें, तो हम पाते हैं कि महिलाओं कोउनके कानूनी हक देना भी हम गवारा नहीं करते, देते भी हैं, तो एक कृपा के तौर पर। बेटी अगर पिता की संपत्ति मेंअपना हिस्सा मांगती है, तो कहा जाता है कि कैसी बेटी है। लालची है। लोग उस पर उंगलियां उठाते हैं। जबकि यहउसका कानूनी अधिकार है। पर अमूमन समाज में होता यही है कि संपत्ति सिर्फ बेटों में बांट दी जाती है और बेटियोंको 'पराया धन' मानकर उसी दिन घर से अलग कर दिया जाता है, जब उनकी शादी होती है। यही हाल विधवा कोअधिकार देने में है। इसमें भी समाज कोताही करता है। दरअसल, महिलाओं को अधिकार तो चाहिए, लेकिन कृपाके अंतर्गत नहीं, बल्कि उन्हें यह न्याय के अंतर्गत चाहिए। दरअसल, समाज की तरह राजनीति में भी पुरुष वर्चस्वहै और वर्चस्व के इस दंभ ने स्त्रियों को बढ़ने नहीं दिया। महिला अपने बल पर कहीं पर खड़ी हो, यह उसे बरदाश्तनहीं होता। पंचायती राज में महिलाएं ग्राम प्रधान तो बनीं, लेकिन वे कितना स्वतंत्र निर्णय लेती हैं? इस दृष्टि से तोमहिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिल जाता है, तो भी यह नाकाफी है। क्योंकि अभी तक महिलाओं और पुरुषोंकी बराबरी की भागीदारी में बहुत भारी अंतराल है।

महिलाओं को पचास प्रतिशत की भागीदारी मिलनी चाहिए, तभी इस खाई को समतल करने की दिशा में बढ़ा जासकता है। जब महिलाओं को आधा जगत कहा जाता है, सृष्टि ने जब उन्हें बराबरी का हक दिया है, तो हम उन्हेंआधा हिस्सा क्यों नहीं दे सकते? स्त्रियों को कृपाभाजन बनाने की प्रवृत्ति और मानसिकता को त्यागना होगा। सृष्टिका असंतुलन दूर करने के लिए उन्हें उनका उतना हक साधिकार देना होगा, जितना उनके विकास के लिए जरूरीहै। राजनीति में स्त्री को जब भी कोई पद मिलता है, तो उसे या तो पति के दिवंगत होने पर मिलता है या पिता केदिवंगत होने पर। बड़ी से बड़ी सत्तासीन महिलाओं को उनका पद इमोशनल कारणों से मिलता है। अनुग्रह की वजहसे मिलता है। यह स्त्रियों के स्वाभिमान पर चोट है और उनके लिए अपमानजनक है।

स्त्री जब भी अपने अधिकार के लिए आगे आती है, तो उसे वह स्थान नहीं मिलता। वह चाहे राजनीतिक पार्टियों केटिकटों के बंटवारे का मामला हो या फिर नौकरी में आरक्षण का। किसी महिला को महत्वपूर्ण जगह मिल भी गई, तो उसे पुरुषवादी मानसिकता का चतुर्दिक सामना करना पड़ता है। उसे उसी पध्दति के भीतर रहना पड़ता है। वहअपनी आवाज उठाती है, तो उसे महत्वपर्ण जगह से हटा दिया जाता है। किरण बेदी के साथ भी तो यही हुआ। यहस्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक समाज के नजरिये में फर्क नहीं आएगा। समाज का मौजूदा नजरिया तोस्त्रियों को बर्दाश्त करने वाला है। कन्या भ्रूण हत्या के मामले आते रहते यदि यही सोच पूरे समाज की हो गई, तोउसके अस्तित्व का संकट भी हमारे सामने है। समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है। समाज को बदलने कीपहल भी महिलाओं को ही करनी होगी। महिलाओं को शिक्षित होना पड़ेगा। शिक्षा से साहस आता है।

इसलिए महिलाओं और समाज को भी साहसी होना पड़ेगा। महिलाओं को जोखिम उठाना होगा। आज महिलाओंको 'अच्छी महिला' होने का प्रमाण पत्र लेने के लिए तमाम कष्ट उठाने पड़ते हैं। वे अपने समर्थन के सुरक्षा चक्र मेंघूमती रहती हैं। जाने कितनी रूढ़ियां उनके खिलाफ खड़ी हुई हैं, जो पूर्णत: पुरुषवादी हैं। लेकिन जब हम वृहत्तरसमाज के बारे में सोचते हैं, तो उसकी प्रगति के लिए जरूरी है कि एक भागीदारी तो सुनिश्चित हो। इसके लिएआरक्षण जरूरी है। जहां तक इस विधेयक की बात है, तो संदेह है कि इसे स्वीकृति मिल भी गई, तब भी यहप्रभावपूर्ण तरीके से लागू हो पाएगा। क्योंकि महिलाओं को अधिकार देने की बात आती है, तो उसके पक्ष में कमऔर विपक्ष में बहुसंख्य लोग खड़े हो जाते हैं। कानून हमारे यहां हैं, लेकिन उनकी परिणति क्या होती है? बलात्कारजैसे जघन्य अपराध की एफआईआर तक को प्राथमिकता नहीं दी जाती। सच कहें, तो स्त्री को अधिकार मिलने मेंकानून, कागज और कार्रवाई के बीच बड़े अंतराल हैं। इन अंतरालों को हमें पाटना पड़ेगा। कोई कानून तभी प्रभावीहोता है, जब सदिच्छा से उसे लागू किया जाए।

बाधायें
वर्तमान राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थनलिए खड़ी है। वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग औरअल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है। इस विधेयक के रास्तेमें कई तकनीकी परेशानियाँ हैं क्योंकि यह संविधान में संशोधन करने वाला विधेयक है. ग्यारहवीं लोकसभा मेंपहली बार विधेयक पेश हुआ था तो उस समय उसकी प्रतियां फाड़ी गई थीं. इसके बाद 13वीं लोकसभा में भी तीनबार विधेयक पेश करने का प्रयास हुआ, लेकिन हर बार हंगामे और विरोध के कारण ये पेश नहीं हो सका था. महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है और इसलिए इसे दो तिहाई बहुमत से पारित कियाजाना ज़रूरी है.

राजनीतिक दल और महिलाएं
महिला मतदाता और महिला प्रत्याशी के साथ एक और बात की चर्चा होती है, वह है राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में महिलाएं। अर्थात पार्टियां महिलाओं के जीवन में कितनी खुशहाली लाने का वादा करती हैं। यह भी सच हैकि महिलाएं घोषणाएं पढकर मतदान नहीं करतीं। बहुत कम महिला मतदाताओं को चुनावी घोषणा का अर्थ पताहै। दरअसल किसी भी पार्टी का घोषणा पत्र उसका ऎसा दस्तावेज होना चाहिए जो समाज के हर क्षेत्र के बारे में पार्टीका दर्शन, दृष्टि और कार्यक्रम प्रस्तुत करे। घोषणा पत्र से मनसा, वाचा, कर्मणा उसका संकल्प प्रकट हो, पर ऎसाहोता कहां है। अधिकांश राजनीतिक दल स्वयं अपने घोषणापत्रों के बारे में विशेष चिंतित नहीं रहते। उन्हें भीमालूम है कि घोषणा पत्र के आधार पर उन्हें वोट नहीं मिलने वाले हैं। जहां तक इन चुनावी घोषणा पत्रों मेंमहिलाओं के लिए की गई घोषणाओं का सवाल है- प्रमुख पार्टी (सत्ताधारी) कांग्रेस के घोषणा पत्र (2009) में सारेके सारे बिन्दु वही रहे जो वर्ष 2004 के घोषणा पत्र में थे। जैसे लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण पहलीघोषणा है। उसमें साफ लिखा था, "अगला लोकसभा चुनाव महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण मिलने के आधारपर ही करवाया जाएगा।" 2009 के चुनावी घोषणा में लिखा था- "लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिएएक तिहाई सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान में संशोधन की कोशिश की जाएगी।"

दोनों संकल्पों में विषय एक है, आस्था बदली हुई। 2004 के लोकसभा चुनाव में संकल्प था। पांच वर्षों में संकल्पपूरा करने के लिए प्रयास भी नहीं हुआ। 2009 के घोषणा पत्र में "कोशिश करने" की बात लिखी गई अन्य 4 बिन्दु भी मिलते जुलते हैं। कमाल की बात है कि कांग्रेस के घोषणा पत्रों में महिलाओं के खाते में पांच बिन्दु हीनिश्चित हैं। क्या इतने से महिलाओं की समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? सच तो यह है कि महिलाओं की विभिन्नसमस्याओं की ओर विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया है। वरना समस्याएं स्थायी कैसे होतीं पाच वर्ष शासन करने केबाद भी लगभग उन्हीं पुराने बिन्दुओं को घोषणा पत्र में डालने की विवशता क्यों पिछली घोषणाओं में से कितनीपूरी हुई, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है भाजपा। इस दल ने भी संसद में महिला आरक्षण को ही प्रथम घोषणा बनाया , परन्तुभाजपा ने महिलाओं की झोली में 14 बिन्दु दिए हैं। पिछले दिनों राजस्थान, .प्र. और छत्तीसगढ सरकारों द्वारासंचालित महिला लाभकारी योजनाओं को भी केन्द्रीय स्तर पर लेने का वादा किया गया। वहीं लैंगिग समानता केलिए समान नागरिक संहिता बनाने का वादा दुहराया गया। अन्य 12 बिन्दु भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं केजीवन को सशक्त बनाने का संकल्प दुहराते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी (एम) ने भी अपने घोषणा पत्र में संसद में महिलाआरक्षण को ही प्राथमिकता दी थी। इनके छह बिन्दुओं में आर्थिक विकास के लिए अनुदान, बलात्कार के विरूद्धकानून, दहेज और कन्या भ्रूण हत्या का खात्मा, महिला बजट को बढाना, विधवाओं और महिला द्वारा संचालितपरिवारों को विशेष सुविधा देने के वादे दुहराए गए

विपक्ष का काम है कि वह संसद में सत्ता पक्ष को उसके वादों का स्मरण करवाए। एक और बात की ओर ध्यानदिलाना आवश्यक है। महिलाओं की क्षेत्र विशेष की समस्याएं भी होती हैं। अर्थात् उनकी सरकारों से अपेक्षाएं। इसपर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। घोषणा पत्रों के निर्माण के पूर्व महिलाओं की प्रतिनिधियों को विश्वास में नहींलिया जाता। उनसे संवाद ही नहीं होता। फिर तो घोषणाएं हैं, घोषणाओं का क्या जिन महिलाओं को मतदान कामहत्व ही नहीं पता वे घोषणाएं जानने-समझने का अपना अधिकार भी नहीं समझतीं। यह स्थिति बदलनीचाहिए।

घोषणापत्रों के निर्माण के पूर्व महिलाओं की प्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया जाता। उनसे संवाद ही नहीहोता। सत्य तो यह है कि महिला आरक्षण की चर्चा केवल दिखावटी है। कोई भी दल नहीं चाहता कि जिनका वे सदासे शोषण करते आए हैं वे उनके साथ आकर खड़ी हो जाए। इसी कारण २० साल से यह विषय मात्र चर्चा में ही है। नाकोई इसका विरोध करता है और ना खुलकर समर्थन। उसको लाने का सार्थक कदम तो बहुत दूर की बात है। उनकोलगता है कि नारी यदि सत्ता में आगई तो उनकी निरंकुशता कुछ कम हो जाएगी, उनकी कर्कशता एवं कठोरता परअंकुश लग जाएगा तथा महिलाओं पर अत्याचार रोकने पड़ेंगें आज समय की माँग है कि नारी को उन्नत्ति केसमान अवसर मिलें और खुशी-खुशी उसे उसके अधिकार दे दिए जाएँ।